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हवा में उदासी तैर रही थी, जैसे आसमान खुद किसी बात पर रोया हो। कमरे के कोने में खड़ा अबूज़र खामोशी से सामने देख रहा था, पर उसकी आँखें ज़ोबोरिया से मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थीं।
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ज़ोबोरिया कुछ कदम दूर खड़ी थी — चुप, सन्न, लेकिन उसके अंदर सवालों का तूफ़ान था। उसकी आँखों में थमी हुई नमी, अबूज़र की ख़ामोशी से और गीली हो गई थी।
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"ज़ोबोरिया..." अबूज़र की आवाज़ बहुत धीमी थी, जैसे वो खुद अपने ही शब्दों से डर रहा हो।
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"तुम जानना चाहती हो ना... कि मैं तुमसे क्यों दूर हुआ?" वो अब भी उसे देख नहीं पा रहा था। उसकी आवाज़ में थकान नहीं, लेकिन टूटन थी। वो टूटन जो सालों से एक गहरे राज़ के नीचे दबती चली आई थी।
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"तो सुनो..." अब उसने आंखें बंद कर लीं, जैसे हर लफ़्ज़ उसके सीने से खींचकर बाहर निकल रहा हो।
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"मुझे एक बीमारी हो गई थी... ऐसी जिसमें ज़्यादा दिन ज़िंदा रहने की उम्मीद नहीं थी।"
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उसने एक लंबा साँस लिया — जैसे सालों का बोझ था सीने में।
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"मैं नहीं चाहता था कि तुम ये जानो। मैं नहीं चाहता था कि तुम्हारी आँखों में मेरे लिए दया हो... या डर हो। मैं नहीं चाहता था कि तुम हर रोज़ अंदर से टूटो... मेरे साथ-साथ मरती रहो।"
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अबूज़र की आँखें अब भी ज़मीन पर जमी थीं, लेकिन अब उसके होंठ काँपने लगे थे।
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"मैं तुमसे मोहब्बत करता था, ज़ोबोरिया... और शायद इसलिए, मैंने सच छुपा लिया।"
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वो कुछ पल के लिए चुप हुआ। फिर धीरे से बोला:
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"मगर मोहब्बत नहीं छुपा सका... वो हर पल तुम तक पहुँचती रही। हर ख़ामोशी में, हर दूरी में... मेरा प्यार मौजूद था।"
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ज़ोबोरिया का गला भर आया। उसकी आँखों से कुछ कहे बिना आँसू बहने लगे। वो चाहती थी कुछ बोले, पर अबूज़र की सज़ा उसने सुन ली थी।
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और अब... उसके फैसले की बारी थी।
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ज़ोबोरिया अबूज़र की बात सुनकर मुस्कुराई…
मगर वो मुस्कुराहट कोई आम मुस्कुराहट नहीं थी।
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वो मुस्कुराहट... जैसे कोई दरारों से भरी दीवार अचानक धूप को अपने भीतर समा ले —
जैसे बरसों से ठहरी हुई आँखों में अचानक एक लहर चल पड़े —
जैसे किसी ने रेत पर लिखा ‘इंतज़ार’ अब जाकर समंदर को दिखाया हो।
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वो बस हल्के से बोली —
“अगर तुम सच में टूटे थे...
तो क्या मुझे इतनी कमज़ोर समझ लिया था अबूज़र,
कि मैं तुम्हारे साथ टूट नहीं सकती थी?”
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उसकी आवाज़ धीमी थी, मगर उसमें शिकवा नहीं था।
थी तो बस एक वो मोहब्बत —
जो अब भी रुकी थी वहीं,
जहाँ अबूज़र ने उसे छोड़ दिया था।
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अबूज़र की पलकों में नमी उतर आई।
उसने चाहकर भी ज़ोबोरिया की तरफ़ नहीं देखा।
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मगर अब ज़ोबोरिया को उसका मुँह नहीं — उसकी ख़ामोशी पढ़नी आती थी।
और उस ख़ामोशी में बस एक बात थी...
मोहब्बत आज भी अधूरी नहीं थी।
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ज़ोबोरिया खामोश होकर वहाँ से चली जाती है...
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ना कुछ कहा,
ना कुछ पूछा,
ना ही पीछे मुड़ी।
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उसके क़दम बहुत हल्के थे, मगर ज़मीन पर उनके निशान गहरे पड़ते जा रहे थे —
जैसे हर क़दम पर एक जवाब छूटता जा रहा हो,
जैसे हर साँस में एक अलविदा भरता जा रहा हो।
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अबूज़र वहीं खड़ा रह गया —
उसके लफ्ज़ ज़ोबोरिया के कंधों तक भी नहीं पहुँचे थे,
मगर उसकी ख़ामोशी सीधा उसके सीने में उतर गई।
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उसने एक पल को अपनी आँखें बंद कीं,
और महसूस किया वो सब कुछ
जो कभी वो कह नहीं पाया था...
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"ज़ोबोरिया..."
उसने बस उसके नाम को हवा में पुकारा —
जैसे वो नाम ही अब उसकी सबसे आख़िरी मोहब्बत हो।
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मगर हवा ख़ामोश रही,
ज़ोबोरिया चली गई थी।
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मगर एक बात अबूज़र जानता था —
उसकी ख़ामोशी में जवाब था,
और वो जवाब अब शायद कभी अल्फ़ाज़ों में लौटकर नहीं आएगा।
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ज़ोबोरिया घर आकर अपनी अम्मी से लिपट गई।
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दरवाज़ा खोलते ही उसकी आँखों से आंसू यूँ बहने लगे जैसे वो सारी दुनिया से लड़कर अब थक चुकी हो, और अब बस एक माँ की गोद में ही अपनी टूटी हुई रूह को समेटना चाहती हो।
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"अम्मी..." उसकी आवाज़ कांप रही थी।
अम्मी रसोई से जल्दी से बाहर आईं, और अपनी बेटी को इस हालत में देखकर घबरा गईं।
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"क्या हुआ बेटा? रो क्यों रही हो?" उन्होंने जल्दी से ज़ोबोरिया को गले लगा लिया।
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ज़ोबोरिया उनके सीने से लगकर फूट-फूटकर रोने लगी —
"अम्मी... अबूज़र... वो बीमार है। बहुत बीमार। उसने मुझसे छुपाया... उसने मुझसे सब कुछ छुपाया…"
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अम्मी की आँखें पल भर में भर आईं।
"कैसी बीमारी...? क्या कह रही हो तुम?"
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"उसे कोई ऐसी बीमारी हो गई थी जिससे ज़्यादा दिन ज़िंदा रहना मुश्किल होता है… और वो इसलिए मुझसे दूर चला गया… क्योंकि वो नहीं चाहता था कि मैं टूट जाऊँ…"
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उसकी आवाज़ घुट गई।
"और मैं… मैं समझती रही कि वो बदल गया है… मैं सोचती रही कि उसने मुझे छोड़ दिया… मगर अम्मी, वो तो… खुद से जंग लड़ रहा था… और मैं उसे समझ भी न सकी…"
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अम्मी ने उसकी पीठ सहलाई —
"बेटा… मोहब्बत सिर्फ साथ रहने का नाम नहीं होता… कभी-कभी सबसे बड़ी मोहब्बत वही होती है जो खुद से भी छुपा ली जाए… ताकि सामने वाला टूटे नहीं…"
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"मगर अम्मी…" ज़ोबोरिया ने रुआंसी आंखों से कहा, "अबूज़र ने सब कुछ अकेले सहा… क्या मैं इतनी कमजोर दिखती थी कि वो मुझे बताने से भी डर गया?"
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अम्मी ने उसके आँसू पोंछे,
"नहीं… तुम कमजोर नहीं हो। मगर जब कोई किसी से बहुत ज़्यादा मोहब्बत करता है, तो वो बस एक ही ख्वाहिश करता है — कि उसे तकलीफ न पहुँचे। अबूज़र ने वही किया… तकलीफ़ खुद सह ली, तुम्हें बचा लिया।"
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ज़ोबोरिया चुपचाप अम्मी की गोद में सिर रखे लेटी रही,
मगर उसकी आँखों के कोनों से अब भी नमी बहती जा रही थी।
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उसके दिल में एक ही सवाल गूंज रहा था —
क्या अबूज़र अब भी उससे उतनी ही मोहब्बत करता है? और क्या अब भी वक़्त उनके बीच बाकी है?
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सफ़वान अपने कमरे में अँधेरा करके बैठा था। बाहर शाम ढल चुकी थी, मगर उसके कमरे में वक़्त कहीं ठहर गया था — किसी धुंधली याद की तरह।
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कमरे में चारों तरफ़ सिगरेट के टुकड़े बिखरे थे, ऐशट्रे में राख से ज़्यादा सुलगती ख़ामोशियाँ थीं। जाने कितनी सिगरेटें वो पी चुका था, पर हर कश के साथ उसे यही लगा जैसे वो ज़ोबोरिया की याद को अपने अंदर से बाहर निकाल रहा है... मगर वो याद तो धुएँ की तरह थी — हर सांस में उतरती चली जाती।
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एक पुराना गाना बैकग्राउंड में धीमे-धीमे बज रहा था — "तू जो नहीं है तो कुछ भी नहीं है..."
और उस गाने की हर लकीर जैसे उसके सीने को चीर रही थी।
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उसने खिड़की खोली। हल्की ठंडी हवा कमरे में घुसी, मगर वो अंदर जमी़ तपिश को ठंडा नहीं कर सकी।
सामने की गली में कहीं दूर किसी लड़की की हँसी गूँजी — जैसे किसी ज़ख़्म पर नमक छिड़क गया हो।
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"ज़ोबोरिया..." उसने पहली बार उसका नाम आवाज़ से नहीं, आँसुओं से पुकारा।
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कितनी दफ़ा वो उसके बिना जीने की rehearsals कर चुका था — cafés में अकेले बैठकर, पुराने मैसेजेस delete करके, उसकी पसंद की चीज़ों से नफ़रत करके...
मगर सच्चाई तो ये थी कि वो आज भी उसी मोड़ पर ठहरा हुआ था जहाँ ज़ोबोरिया उसे छोड़ गई थी।
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"काश... उस रोज़ मैंने कुछ कह दिया होता..."
उसकी आँखें छलक पड़ीं।
"काश मैं अबूज़र होता, काश मैं ही तुम्हारा पहला और आख़िरी होता ज़ोबोरिया।"
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दीवार पर टंगी उसकी तस्वीर को वो देर तक देखता रहा — फिर धीरे से कहा,
"मैं तुझसे नफ़रत भी नहीं कर सकता, और मोहब्बत तो... वो तो मेरी रगों में उतर चुकी है।"
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और फिर... वो अँधेरे में बैठा रहा।
सिगरेट का एक और कश लिया, और खुद से कहा,
"शायद किसी रोज़ ये धुआँ ही मुझे तुझ तक ले जाए..."
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